हाल ही में दिल्ली में 16 दिसम्बर की घटना के बाद 31 दिसम्बर की रात को एक कार्यक्रम रद्द करना पड़ा जिसका कारण थे सिर्फ कुछ गाने, वो गाने जो हमारे सभ्य समाज की भाषा के अनूकूल नहीं हैं (ऐसा लोगों का मानना है) और उस कार्यक्रम के गायक पर ऐसे गीत गाने का आरोप था। खैर महिला संगठनों के भरसक प्रयत्नों के बाद कार्यक्रम रद्द हो गया और इसके लिए अनेकों लोगों ने अपनी पीठ खुद ही थपथपा ली। शायद उनमें से कुछ तो ये सोच कर खुश हुए कि अब महिलाओं के प्रति अपराध कम हो जाएँगे।
मैं समाज की उस पीढ़ी से नहीं हूँ जिसने फिल्मों में नायिका के घूँघट उठाने का इंतज़ार किया और न ही उस पीढ़ी से हूँ जिसने कैबरे गीतों में हेलन के नंगे पैरों का दीदार कर के आहें भरी हों। मैं उस पीढ़ी से हूँ जहां भारतीय सिनेमा करवट ले रहा है लेकिन विडम्बना है कि उसकी रीढ़ की हड्डी गायब है। हम नहीं जानते वो किस तरफ करवट लेगा और इस करवट के क्या परिणाम होंगे।
सिनेमा का सौ वर्ष पहले शुरू हुआ सफर आज इस मक़ाम पर आ गया है जिसे मक़ाम कह पाना भी शायद गलत है। राजा हरीशचन्द्र और आलम-आरा से शुरू हुआ सफर आज जिस्म-3 पर आ गया है। आज हमारे पास तकनीक है, बेहतर संसाधन हैं, बेहतर प्रबंधन है, पर पहले हमारे पास बेहतर लोग थे जिन्होने सीमित साधनों में भी बेहतर मनोरंजन प्रदान किया। सिनेमा में आमूलचूल परिवर्तन के बावजूद कुछ चीजें अभी भी ज्यों की त्यों हैं और न ही कभी बदलेंगी। मनोरंजन सिनेमा का मूल आधार रहा है और विद्या बालन के संवाद ने इसे किसी तरह की मजबूती प्रदान नहीं की, हाँ इसकी वैधानिकता पर मुहर जरूर लगा दी। और दूसरी और महत्वपूर्ण बात– सिनेमा समाज का आईना था, है और हमेशा रहेगा, दर्शक सिनेमा का भाग्यविधाता हमेशा रहेगा। इन दो बातों के अलावा फिल्मों में सब बदल गया– प्रेम भी और प्रेम करने वाला समाज भी।
ज्यादा वक़्त नहीं बीता, यही कोई 2003 के आस पास की बात है। हर अखबार, समाचार चैनल के चर्चा कार्यक्रमों यहाँ तक कि अदालतों में भी यहीं बहस चल रही थी कि उस वक़्त रीमिक्स गानों द्वारा भारतीय संस्कृति के ह्रास को कैसे रोका जाये, भारतीय सिनेमा के पतन को कैसे रोका जाये। अदालतों ने रीमिक्स गानों को वैधानिक करार दिया और जैसे बाज़ार में ऐसे गानों की बाढ़ सी आ गयी। हर किसी म्यूजिक कंपनी वाले में होड़ लगी थी कि कौन पुराने भुला दिये गए गानों को सबसे अच्छा रीमिक्स करता है। परंतु बात रीमिक्स की नहीं थी, लोगों के अनुसार इस रीमिक्स संस्कृति से गाने की आत्मा का अंतिम संस्कार हो रहा था परंतु भारत जैसे स्वतंत्र देश में ये दलीलें नहीं टिक पाईं और पर्दे पर मॉडल्स ने जी भर कर बदन को परोसा। याना गुप्ता, शेफाली जरीवाला चंद ऐसे नाम हैं जो उस वक़्त हर आलोचक की जुबान पर थे और साथ में हिट हो रहे थे वो गाने जिन्हे भारतीय सिनेमा कब का भुला चुका था। “कांटा लगा”_ज्योति, “चढ़ती जवानी”_कारवाँ ऐसे गानो की फेहरिस्त में सबसे ऊपर थे। अब चंद महाशय सोच रहे होंगे कि लिखने वाला पागल है, दस साल पुरानी बात को इतना वक़्त बीत गया और इसके लिए तो जैसे कल ही की बात हो। तो साहब बात कुछ ऐसी है कि बात तो शायद कल ही की है जब मैं स्टार प्लस पर शेफाली का डांस देख रहा था और बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब याना गुप्ता ने अक्षय के कार्यक्रम में शिरकत की थी हाँ वो बात पुरानी हो चुकी जब 2003 के आस पास एक ऐसी ही मोहतरमा को भारत छोड़ने के आदेश दिये गए थे।
तो खैर उस वक़्त सभी ओर ये ही चिंता थी कि सिनेमा का क्या होगा, गानों का क्या होगा, हमारी संस्कृति का क्या होगा और मुझे आज भी याद है एक टीवी कार्यक्रम में वक्ता ने कहा था कि ये रीमिक्स तभी तक बिकेंगे जब तक इन्हे खरीदने वाले हैं और कितना सही कहा था उन्होने, आज उन रीमिक्स गानों को कोई नहीं पूछता। पुराने गानों की मौलिकता अभी भी बरकरार है और उनके सुनने वालों के दिल में उनके लिए अभी भी वही जगह है, और रही बात हमारी संस्कृति की तो जाने वाले को कौन रोक पाया है। रीमिक्स गानों का वक़्त था, लोगों ने कमाई की और फिर वक़्त बदल गया, कुछ मॉडल्स को कुछ और ऐसे ही गाने मिल गए और कुछ ऐसे वादों की आस में लोगों के बिस्तरों की शोभा बन कर रह गईं। और हाल ही में सिनेमा ने सौ (गौरवशाली नहीं कहूँगा) साल भी पूरे कर लिए।
सिनेमा, जिसके लिए कहा जाता है “The Show Must Go On” और इसी कहावत की आड़ ले लेकर यहाँ लोगों ने जनाजों के साथ बारातें निकाल दीं, रिश्तों को भुला दिया और कोई लाश भी पड़ी हो तो भी इन्हें कोई परवाह नहीं…कभी कभी तो लगता है जैसे ये कहावत इनके अपने फायदे के लिए बनाई गयी है कि चाहे कुछ भी हो जाये धंधा चलता रहना चाहिए।
सिनेमा, दर्शक जिसका भगवान है, यहाँ अच्छे से अच्छे लोगों की फिल्में पिट जातीं हैं और कुछ लोग रातों रात सितारे बन जाते हैं। यहाँ दर्शक ही निर्णय लेता है कि उसे क्या खरीदना है, माना कि दुकान में क्या सामान है ये खरीददार के हाथ में नहीं, पर क्या खरीदना है इसका फैसला दर्शक ही लेता है और कुछ न कुछ खरीदना ही है ऐसी भी कोई बंदिश नहीं है।
सिनेमा, जहां कितने ही लोग सितारे बने, दशकों तक चमके भी और फिर गुमनामी के उन अँधेरों में खोये कि आज उनका नाम-ओ-निशान तक नहीं मालूम लोगों को। अलबत्ता विविध भारती और चंद अखबार वाले यदा कदा उनके बारे में बातें कर लेते हैं। यहाँ मीना कुमारी को शराब ने लील लिया तो गुरुदत्त को मोहब्बत ने, परवीन की लाश तीन दिन तक सड़ती रही लेकिन लोगों को खबर तक नहीं हुई, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को तो सरकार भी 15 अगस्त और 26 जनवरी पर ही याद करती थी।
सिनेमा, जिसने भारतीय राजनीति को उम्दा राजनेता दिये फिर चाहे वो चिरंजीवी हो या एमजीआर या जयललिता या सुनील दत्त या गोविंदा या जया या रेखा या अमिताभ। लोगों ने सितारों को भगवान जैसा क्या भगवान से बढ़कर मान दिया। रजनीकान्त इसका जीवंत उदाहरण हैं।
बस एक गलती हमारे समाज से हो गयी कि जो सिनेमा समाज का आईना था उस आईने को समाज ने हकीकत मान लिया और खुद सिनेमा का आईना बन बैठा है। माना आज सिनेमा समाज का आईना नहीं रह गया पर इसके जिम्मेदार भी हम हीं हैं ठीक उसी तरह जिस तरह एक बुरी औलाद की जिम्मेदार माँ होती है और ठीक उसी तरह जिस तरह एक गलत सरकार की जिम्मेदार जनता। सिनेमा का ये दायित्व था कि वो समाज में व्याप्त बुराइयों को दिखाये और इसके लिए उसे पूर्ण स्वायत्तता दी गयी पर वो भी अधिकार पाकर सब कुछ भूल गया और मनोरंजन की आड़ में धंधा करने लगा पर खरीदने वालों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी, वैसे तो सही सब्जी भी मोल भाव कर लेते हैं पर यहाँ जो मिला उठा लिया। ये सिनेमा की गलती नहीं है कि हमारी संस्कृति का पतन हो रहा है या अपराध बढ़ रहे हैं, ये तो देखने वाले की नजरों का फेर है। अच्छाई सीखने वाले अपराध से भी अच्छाई सीख लेते हैं और जैसा कि मैंने कहा कि जाने वाले को कौन रोक पाया है ठीक उसी तरह जिसे पतित होना है उसे तो स्वयं प्रभु राम भी नहीं बचा सकते। जब तक हम राखी सावंत और हनी सिंह जैसे लोगों को खरीदते रहेंगे, जब तक हम द्विअर्थी संवादों पर हँसते रहेंगे, जब तक देश IPL के पीछे पागल रहेगा, जब तक सास-बहुओं का नाटक बुद्धू बक्से पर चलता रहेगा, जब तक देश का युवा रोड़ीज़ देखकर गालियां देना अपनी शान समझता रहेगा, जब तक हमारी नायिकाएँ कपड़े उतारती रहेंगी और समाज उनका पालन करता रहेगा, तब तक हमारा भाग्य विधाता भारत नहीं बल्कि सिनेमा ही रहेगा और अब तो ये सिनेमा इतना प्रबल और परिपक्व हो चुका है कि इसे सरकारी थपेड़ों से तो ज्यादा असर भी नहीं होता।
अपनी बात चार पंक्तियों के साथ खत्म करना चाहूँगा —
औरत है वो औरत जिसे दुनिया की शरम है,
संसार में बस लाज ही नारी का धरम है।।
– मदर इंडिया
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा।।
– इकबाल
Image Courtesy : Google Search
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