पिछले तीन दिन से एक प्रश्न दिमाग में कौंध रहा है और उत्तर…वही वाली बात कि…
मैं चाहता तो हूँ कि ज़मीं आसमां एक कर दूँ,
इनकी मोहब्बत की दूरियां मिटा दूँ,
पर क्या करूँ मैं खुदा नहीं हूँ ना।
और खुदा होता तो भी
इंसान का ये कारनामा देख कर तो वाकई सिहर जाता,
रूह कांप जाती मेरी।।
पर क्या करूँ मैं इंसान हूँ।
मेरी फितरत है चीजों को भुलाना,
वक़्त को इस काबिल बनाना
कि वो मेरे जख्म भर सके।
मेरी ही फितरत है मतलबपरस्ती की जिंदगी बसर करना,
कौन कहता है सिर्फ जानवर ऐसा करते हैं,
नजरें उठाये, कोई मेरी तरफ भी तो देखे।।
#क़ैस
अब क्या करूँ दिल भर आया तो बस लिख रहा हूँ पर यकीन मानिये हम इंसानों को कुछ हक ऊपर वाले ने शायद गलती से अदा किये हैं। उनमें से एक हक है पैदाइश का।
ज़रा इन खबरों पर गौर फरमाइये-
- लोक लाज के डर से बच्ची को कांटों की गोद में सुला गई विधवा मां!
- तीन दिन तक कांटों में पड़ी रही नवजात, रोना तो भूल गई बस कराहती रही
- Mother in Odisha sells baby boy to buy mobile phone, jeans and tops
इन तीनों ख़बरों का शीर्षक ही बता रहा है कि इन ख़बरों में क्या है और आप और हम ऐसी क्या, इससे भी बुरी-बुरी ख़बरें रोज पढ़ते और देखते हैं और कहने की जरुरत नहीं कि इन्हें भूल भी जाते हैं। तो फिर आज ऐसा क्या ख़ास हो गया।
चलिए आपकी इंसानियत का एक छोटा सा इम्तिहान लेता हूँ…जिस जिस ने ऊपर दी गयी तीन ख़बरों में से एक भी खबर पढ़ी है वो मेरी नजरों में इंसान नहीं है क्योंकि आजकल के इंसान ऐसी चीजों पर ध्यान नहीं देते!!! क्यों सही कहा ना…हाँ अभी ये शाहरुख़ की नयी फिल्म के गाने डाउनलोड करने के लिंक होते तो अब तक पता नहीं कितने लोग क्लिक कर चुके होते। खैर छोड़िए, शायद आजकल के इन्सानों ने इंसानियत के मायने बदल लिए हैं।
मैं तो मुद्दे पर आता हूँ और मुद्दा है खुदा का इंसान को नवाज़ा गया एक हक़, पैदाइश का हक़, जिंदगी देने का हक़।
खुदा ने जिंदगी लेने का हक़ अपने हाथों में रखा पर देने का हक़ अभी भी इंसान के हाथों में हैं शायद यही वजह है कि हमारे खुदा/भगवान्/God/वाहे गुरु और बाकी सभी को भी दुनिया में आने के लिए एक माँ और एक कोख की जरुरत महसूस हुई, शायद इसीलिये मां का स्थान भगवान् से भी ऊपर माना गया है चाहे वो कोई भी धर्म हो। माँ जन्म देती है, जननी कहलाती है, जो काम सर्व-शक्तिमान ऊपर वाला भी नहीं कर सकता वो काम मां करती है। बस यही से शुरू होती है हक़ की लड़ाई।
इंसान के पास हक़ है जन्म देने का पर उसके पास जान लेने का हक़ न तो आज है और न ही कभी होगा। फिर क्यों इंसान इस बात को भूल जाता है। ज़रा एक विडियो क्लिप देखिये-
ये क्लिप पाकिस्तानी फिल्म “बोल” की है। जानता हूँ कि आप सभी ये नहीं देख सकते क्योंकि किसी के पास वक़्त नहीं है तो किसी के पास Time, किसी के पास दिल नहीं है क्योंकि उसका कोई बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। मैं ही लिख देता हूँ उन संवादों को जो इस क्लिप में बोले गए हैं, पर फिर भी गुजारिश है, खुशियाँ बहुत बाटीं होंगीं, अगर वक़्त मिले तो किसी का दर्द महसूस कीजिये,ये क्लिप देखिये, आपको अहसास होगा।
क्लिप के संवाद कुछ इस तरह से हैं—
नहीं, मुझे कह लेने दीजिये
(एक पुलिस वाला सब मीडिया वालों को हटा रहा है जिससे इस लड़की को इसके पिता के क़त्ल के जुर्म में सज़ा-ए-मौत दी जा सके, इस लड़की की आखिरी ख्वाहिश थी अपनी कहानी मीडिया के जरिये लोगों को सुनाना)
But Policemen don’t listen to media and finally she ends her story by bursting out her agitation with following dialogues-
“मैंने अपने बाप से अपनी पैदाइश का बदला लिया, मेरे बाप ने आठ बच्चे पैदा नहीं किये थे बल्कि आठ बच्चे मारे थे, मैं अपने पीछे एक सवाल छोड़ के जाना चाहती हूँ और मैं चाहती हूँ कि आप सब इस बात का जवाब इस दुनिया से मांगें। सवाल ये है कि सिर्फ मारना ही जुर्म क्यों है पैदा करना जुर्म क्यों नहीं, सोचिये पैदा करना जुर्म क्यों नही है। पूछिए, हराम का बच्चा पैदा करना ही जुर्म क्यों है, जायज़ बच्चे पैदा कर के उनकी जिंदगियाँ हराम कर देना जुर्म क्यों नहीं। लोगों को समझाएं कि और भिखमंगे पैदा नहीं करो, रोती सूरतें और बिलखती जिंदगियां पहले ही बहुत हैं, जब खिला नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो“……
AND THEN THEY HANG HER……..
और जवाब अभी तक मेरे पास नहीं है। पर सोचा है कि इस मसले पर कुछ तो करके ही रहूँगा चाहे थोड़े दिन बाद कोई PIL हो या PM/President को पत्र। आप भी चाहे तो कुछ कर सकते हैं। शुरुआत कीजिये अपने आप से, अपने परिवार से, अपने रिश्तेदारों से।
क्यों हम औरतों को सिर्फ पैदाइश के वक़्त ही याद करते हैं, और बाकि वक़्त उन्हें मर्द के पैरों की जूती समझा जाता है, औरत बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं है और ना ही पैदा हुआ बच्चा बेजान है, क्यों बेटियों को पैदा होने से और पैदा होने के बाद मार दिया जाता है, क्यों सिर्फ बेटियों के साथ ही ता-उम्र एक अलग व्यवहार किया जाता है, जैसे वो पैदाइश से ही पराई हों, क्यों बेटों को बेटियों से ऊपर माना जाता है।
और ये मत सोचियेगा कि ये सब गांवों में होता है बस…नजरें उठा कर देखिये, आपके आसपास ऐसे बहुत नज़ारे मिलेंगें जहाँ लोगों को सिर्फ बेटे चाहियें, हमारी दादियों को, नानियों को तो जैसे बेटों से प्यार है, चाहे उनके खुद के बेटों ने उन्हें लातें मार के बेघर कर दिया हो पर उन्हें मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा है, और आखिर में जन्म देने वाली माँ, जी हाँ। किसी मर्द तो क्या भगवान् में भी इतनी हिम्मत नहीं की माँ से उसके बच्चे की जिंदगी छीन ले, पर ये काम हमेशा से औरतों ने ही किया है चाहे वो सास हो या ननद या जेठानी या कोई और, या खुद जन्म देने वाली कलयुगी माँ। जब तक औरत खुद अपनी सुध नहीं लेगी, तब तक इस ज़ात का कोई भला नहीं कर सकता।
ऊपर दी गयी तीन ख़बरों में से तीनों की तीनों जन्म देने वाली माँ की कारगुजारियां हैं, इन्हें माँ कहते हुए शर्म आती है।
हमें बदलना होगा। जब तक हम बिन ब्याही माओं को अपने समाज में जगह नहीं देंगें, जब तक बच्चे पैदा करना ऊपर वाले की देन या मजाक माना जाता रहेगा, जब तक हम इसे एक जिम्मेदारी के नजरिये से नहीं देखेंगें, जब तक समाज में नारी का स्थान पुरुष के बराबर नहीं होगा, जब तक कुवांरी लड़कियां शाम होते ही घर में छिप जाना चाहेंगीं, जब तक औरत को मजबूर होकर अपने जिस्म से समझौता करना पड़ेगा, जब तक माँ-बहन-बेटी और बहुओं का इस्तेमाल गन्दी गलियों में होता रहेगा …तब तक बदलावों की बात करना भी बेमानी है।
और एक आखिरी बात…समाज इंसान की बनायीं हुई चीज़ है, पर समाज इंसान को कभी नहीं बना सकता, कभी नहीं।।।
<<< Featured Image is of Bengal Famine-1943 >>>
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